महाभारत की कथा का विस्तार बहुत अधिक है इसमें अनेक ऐसी बाते है जिनमे से कुछ तो हम जानते है परन्तु कुछ का वर्णन बहुत कम होने के कारण इनके बारे में विदित नहीं है. आज हम आपके सामने ऐसी ही एक कथा के बारे में बताने जा रहे है जिसका जिक्र सायद ही आपने…
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महाभारत की कथा का विस्तार बहुत अधिक है इसमें अनेक ऐसी बाते है जिनमे से कुछ तो हम जानते है परन्तु कुछ का वर्णन बहुत कम होने के कारण इनके बारे में विदित नहीं है. आज हम आपके सामने ऐसी ही एक कथा के बारे में बताने जा रहे है जिसका जिक्र सायद ही आपने पहले कभी सूना हो.
द्रोपदी के पिता द्रोपद एवं कौरवों व पांडवो के गुरु द्रोणाचार्य दोनों ने एक ही आश्रम में शिक्षा-दीक्षा गर्हण करी थी. बचपन में दोनों एक दूसरे के बहुत अच्छे मित्र थे.
परन्तु एक दिन द्रोपद ने अपने मित्र द्रोणाचार्य का अपमान कर दिया, द्रोणचार्य को वह अपमान सहन नहीं हुआ तथा उन्होंने द्रोपद से बदला लेने की शपथ ली.
द्रोपद बड़े होकर पांचाल राज्य के राजा बने तथा गुरु द्रोणचार्य अपने आश्रम में राजाओ के पुत्रों को शिक्षा देने लगे जिनमे हस्तिनापुर के राजकुमार कौरव और पांडव भी थे.
जब पांडवो और कौरवों की शिक्षा पूरी हुई तो उन्होंने अपने गुरु द्रोण से दक्षिणा मांगने के लिए कहा.
तब द्रोणचार्य को द्रोपद से अपने प्रतिशोध की याद आई तथा उन्होंने अपने शिष्यों से कहा की जो कोई राजा द्रोपद को कैद करके लाएगा वही मेरी गुरु दक्षिणा होगी.
सबसे पहले कौरव द्रोपद को कैद करने पांचाल राज्य गए परन्तु उन्हें द्रोपद की सैना ने परास्त कर दिया.
उसके बाद पांडव राजा द्रोपद से युद्ध करने गए तथा उन्होंने उनकी सेना को परास्त किया व राजा द्रोपद को कैद कर लिया. बंदी द्रोपद को पांडवो ने अपने गुरु द्रोणाचार्य को दक्षिणा स्वरूप भेट किया.
द्रोणाचार्य ने द्रोपद से अपना बदला लेते हुए द्रोपद का आधा राज्य स्वयं रख लिया तथा आधा राज्य द्रोपद को वापिस देकर उन्हें वापस भेज दिया.
गुरु द्रोण से पराजित होने के उपरान्त महाराज द्रुपद अत्यन्त लज्जित हुये और उन्हें किसी प्रकार से नीचा दिखाने का उपाय सोचने लगे. इसी चिन्ता में एक बार वे घूमते हुये कल्याणी नगरी के ब्राह्मणों की बस्ती में जा पहुँचे.
वहाँ उनकी भेंट याज तथा उपयाज नामक महान कर्मकाण्डी ब्राह्मण भाइयों से हुई.
राजा द्रुपद ने उनकी सेवा करके उन्हें प्रसन्न कर लिया एवं उनसे द्रोणाचार्य के मारने का उपाय पूछा.
उनके पूछने पर बड़े भाई याज ने कहा, “इसके लिये आप एक विशाल यज्ञ का आयोजन करके अग्निदेव को प्रसन्न कीजिये जिससे कि वे आपको वे महान बलशाली पुत्र का वरदान दे देंगे.” महाराज ने याज और उपयाज से उनके कहे अनुसार यज्ञ करवाया.
उनके यज्ञ से प्रसन्न हो कर अग्निदेव ने उन्हें एक ऐसा पुत्र दिया जो सम्पूर्ण आयुध एवं कवच कुण्डल से युक्त था.
उसके पश्चात् उस यज्ञ कुण्ड से एक कन्या उत्पन्न हुई जिसके नेत्र खिले हुये कमल के समान देदीप्यमान थे, भौहें चन्द्रमा के समान वक्र थीं तथा उसका वर्ण श्यामल था.
उसके उत्पन्न होते ही एक आकाशवाणी हुई कि इस बालिका का जन्म क्षत्रियों के सँहार और कौरवों के विनाश के हेतु हुआ है. बालक का नाम धृष्टद्युम्न एवं बालिका का नाम कृष्णा रखा गया जो की राजा द्रुपद की बेटी होने के कारण द्रौपदी कहलाई.
द्रोपदी अपने पूर्व जन्म में एक बहुत ही गुणवान मह्रिषी की पुत्री थी तथा द्रोपदी स्वयं अपने पूर्व जन्म में रूपवती, गुणवती और सदाचारिणी थी,
लेकिन पूर्वजन्मों के कर्मों के कारण किसी ने उसे पत्नी रूप में स्वीकार नहीं किया. इससे दुखी होकर वह तपस्या करने लगी.
उसकी उग्र तपस्या के कारण भगवान शिव प्रसन्न हए और उन्होंने द्रौपदी से कहा तू मनचाहा वरदान मांग ले. इस पर द्रौपदी इतनी प्रसन्न हो गई कि उसने बार-बार कहा मैं सर्वगुणयुक्त पति चाहती हूं.
भगवान शंकर ने कहा तूने मनचाहा पति पाने के लिए मुझसे पांच बार प्रार्थना की है. इसलिए तुझे दुसरे जन्म में एक नहीं पांच पति मिलेंगे.
तब द्रौपदी ने कहा मैं तो आपकी कृपा से एक ही पति चाहती हूं. इस पर शिवजी ने कहा मेरा वरदान व्यर्थ नहीं जा सकता है. इसलिए तुझे पांच पति ही प्राप्त होंगे. इसलिए द्रोपदी को अपने अगले जन्मे में पांच पतियों के रूप में पांडव प्राप्त हुए.