होलिका दहन से संबन्धित कई कथाएं जुडी हुई है. जिसमें से कुछ प्रसिद्ध कथाएं इस प्रकार है. कथाएं पौराणिक हो, धार्मिक हो या फिर सामाजिक, सभी कथाओं से कुछ न कुछ संदेश अवश्य मिलता है. इसलिये कथाओं में प्रतिकात्मक रुप से दिये गये संदेशों को अपने जीवन में ढालने का प्रयास करना चाहिए. इससे व्यक्ति…
होलिका दहन से संबन्धित कई कथाएं जुडी हुई है. जिसमें से कुछ प्रसिद्ध कथाएं इस प्रकार है. कथाएं पौराणिक हो, धार्मिक हो या फिर सामाजिक, सभी कथाओं से कुछ न कुछ संदेश अवश्य मिलता है. इसलिये कथाओं में प्रतिकात्मक रुप से दिये गये संदेशों को अपने जीवन में ढालने का प्रयास करना चाहिए. इससे व्यक्ति के जीवन को एक नई दिशा प्राप्त हो सकती है. होलिका दहन की एक कथा जो सबसे अधिक प्रचलन में है, वह हिर्ण्यकश्यप व उसके पुत्र प्रह्लाद की है
जा हिर्ण्यकश्यप अहंकार वश स्वयं को ईश्वर मानने लगा. उसकी इच्छा थी की केवल उसी का पूजन किया जाये, लेकिन उसका स्वयं का पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का परम भक्त था. पिता के बहुत समझाने के बाद भी जब पुत्र ने श्री विष्णु जी की पूजा करनी बन्द नहीं कि तो हिरण्य़कश्यप ने अपने पुत्र को दण्ड स्वरुप उसे आग में जलाने का आदे़श दिया. इसके लिये राजा नें अपनी बहन होलिका से कहा कि वह प्रह्लाद को जलती हुई आग में लेकार बैठ जाये. क्योकि होलिका को यह वरदान प्राप्त था कि वह आग में नहीं जलेगी.
इस आदेश का पालन हुआ, होलिका प्रह्लाद को लेकर आग में बैठ गई. लेकिन आश्चर्य की बात थी की होलिका जल गई, और प्रह्लाद नारायण कृ्पा से बच गया. यह देख हिरण्यकश्यप अपने पुत्र से और अधिक नाराज हुआ. हिरण्यकश्यप को वरदान था कि वह वह न दिन में मर सकता है न रात में, न जमीन पर मर सकता है और न आकाश या पाताल में, न मनुष्य उसे मार सकता है और न जानवर या पशु- पक्षी, इसीलिए भगवान उसे मारने का समय संध्या चुना और आधा शरीर सिंह का और आधा मनुष्य का नृसिंह अवतार. नृसिंह भगवान ने हिरण्यकश्यप की हत्या न जमीन पर की न आसमान पर, बल्कि अपनी गोद में लेकर की. इस तरह बुराई की हार हुई और अच्छाई की विजय
इस कथा से यही धार्मिक संदेश मिलता है कि प्रह्लाद धर्म के पक्ष में था और हिरण्यकश्यप व उसकी बहन होलिका अधर्म निति से कार्य कर रहे थे. अतंत: देव कृ्पा से अधर्म और उसका साथ देने वालों का अंत हुआ. इस कथा से प्रत्येक व्यक्ति को यह प्ररेणा लेनी चाहिए, कि प्रह्लाद प्रेम स्नेह, अपने देव पर आस्था, द्र्ढ निश्चय और ईश्वर पर अगाध श्रद्धा का प्रतीक है. वहीं, हिरण्यकश्यप व होलिका ईर्ष्या, द्वेष, विकार और अधर्म के प्रतीक है
यहां यह ध्यान देने योग्य बात यह है कि आस्तिक होने का अर्थ यह नहीं है, जब भी ईश्वर पर पूर्ण आस्था और विश्वास रखा जाता है. ईश्वर हमारी सहायता करने के लिये किसी न किसी रुप में अवश्य आते है
पौराणिक कथा के अनुसार प्राचीन समय की बात है कि हिमालय पुत्री पार्वती की यह मनोइच्छा थी, कि उनका विवाह केवल भगवान शिव से हो. सभी देवता भी यही चाहते थे की देवी पार्वती का विवाह ही भगवना शिव से होना चाहिए. परन्तु श्री भोले नाथ थे की सदैव गहरी समाधी में लीन रहते थे, ऎसे में माता पार्वती के लिये भगवान शिव के आमने अपने विवाह का प्रस्ताव रखना कठिन हो रहा था.
इस कार्य में पार्वती जी ने कामदेव का सहयोग मांगा, प्रथम बार में तो कामदेव यह सुनकर डर गये कि उन्हें भगवान भोले नाथ की तपस्या को भंग करना है. परन्तु पार्वती जी के आग्रह करने पर, वे इसके लिये तैयार हो गये. कामदेव ने भगवान शंकर की तपस्या भंग करने के लिये प्रेम बाण चलाया जिसके फलस्वरुप भगवान शिव की तपस्या भंग हो गई. अपनी तपस्या के भंग होने से शिवजी को बडा क्रोध आया और उन्होंने अपनी तीसरी आंख खोल कर कामदेव को भस्म कर दिया. इसके पश्चात भगवान शिव ने माता पार्वती से विवाह कर लिया. होलिका दहन का पर्व क्योकि कामदेव के भस्म होने से संबन्धित है. इसलिये इस पर्व की सार्थकता इसी में है, कि व्यक्ति होली के साथ अपनी काम वासनाओं को भस्म कर दें. और वासनाओं से ऊपर उठ कर जीवन व्यतीत करें.
पुराण अनुसार श्री नारदजी ने एक दिन युद्धिष्ठर से यह निवेदन किया कि है राजन फाल्गुन पूर्णिमा के दिन सभी लोगों को अभयदान मिलना चाहिए. ताकी सभी कम से कम एक साथ एक दिन तो प्रसन्न रहे, खुशियां मनायें. इस पर युधिष्ठर ने कहा कि जो इस दिन हर्ष और खुशियों के साथ यह पर्व मनायेगा, उसके पाप प्रभाव का नाश होगा. उस दिन से पूर्णिमा के दिन हंसना-होली खेलना आवश्यक समझा जाता है.
होली से जुडी एक अन्य कथा के अनुसार फाल्गुन पूर्णिमा के दिन जो लोग चित को एकाग्र कर भगवान विष्णु को झुले में बिठाकर, झूलते हुए विष्णु जी के दर्शन करते है, उन्हें पुन्य स्वरुप वैंकुण्ठ की प्राप्ति होती है.
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