द्रोणाचार्य और एकलव्य की कथा से जुड़ा सनसनीखेज सच | Truth about Dronacharya and Eklavya Story : एकलव्य, भगवान श्रीकृष्ण के पितृव्य (चाचा) के पुत्र थे जिसे बाल्यकाल में ज्योतिष के आधार पर वनवासी भील राज निषादराज को सौंप दिया गया था।Dronacharya And Eklavya Story Truth in Hindi :- एकलव्य अपना अंगूठा दक्षिणा में नहीं देते…
द्रोणाचार्य और एकलव्य की कथा से जुड़ा सनसनीखेज सच | Truth about Dronacharya and Eklavya Story : एकलव्य, भगवान श्रीकृष्ण के पितृव्य (चाचा) के पुत्र थे जिसे बाल्यकाल में ज्योतिष के आधार पर वनवासी भील राज निषादराज को सौंप दिया गया था।
एकलव्य अपना अंगूठा दक्षिणा में नहीं देते या गुरु द्रोणाचार्य एकलव्य का अंगूठा दक्षिणा में नहीं मांगते तो इतिहास में एकलव्य का नाम नहीं होता। गुरु द्रोण ने भीष्मपितामह को वचन दिया था कि वे कौरववंश के राजकुमारों को ही शिक्षा देंगे और अर्जुन को वचन दिया था कि तुमसे बड़ा कोई धनुर्धर नहीं होगा। गुरु द्रोणाराचार्य ने यह नहीं कहा था कि मैंने किसी शूद्र को शिक्षा नहीं देने का वचन दिया है। लेकिन इस घटना को कुछ लोगों के समूह ने गलत अर्थो में लिया और उस अर्थ को बड़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करके समाज में विभाजन किया। इस सामाजिक विभाजन को हवा देने वाले संगठन भी कौन है यह सब जानते हैं।
भारत में इस घटना को लेकर धर्मान्तरण करने वालो ने जितनी गंदगी मचाई है उससे हर कोई वाकिफ है, हम चाहते है की आप यह घटना वास्तविक रूप में जाने व इस सच्चाई को जान हिन्दू के विरुद्ध जेहर फैलाने वाले लोगो को करार जवाब दे. एक बात और विशेष से हम आपको बताना चाहेंगे की कभी भी यौद्धा या व्यावसायिक रूप से वाण चलाने वाले कभी भी अंगूठे का प्रयोग वाण चलाने में अंगूठे का प्रयोग नहीं करते.
द्रोणाचार्य ने जिस अर्जुन को महान सिद्ध करने के लिए एकलव्य का अंगूठा कटवा दिया था, उसी अर्जुन के खिलाफ उन्हें युद्ध लड़ना पड़ा और उसी अर्जुन के पुत्र (अभिमन्यु) की हत्या का कारण भी वे ही बने थे और उसी अर्जुन के साले (धृष्टध्युम्न) के हाथों उनकी मृत्यु को प्राप्त हुए थे। एकलव्य तो प्रसन्नता से अपने गुरु के वचनो की रक्षा के लिए अंगूठा दिया था ।
एकलव्य को इस बात का कभी दुख नहीं हुआ कि गुरु द्रोणाचार्य ने उनसे अंगूठा मांग लिया। गुरु द्रोणाचार्य भी एक ऋषि थे वे भलिभांति जानते थे कि उन्हें क्या करना है। वे भीष्मपितामह और अर्जुन को दिए हुए वचन से बंधे थे। गुरु द्रोणाचार्य के समक्ष धर्मसंकट उत्पन्न हो गया था। विष्णु पुराण और हरिवंश पुराण में उल्लिखित है कि निषाद वंश का राजा बनने के बाद एकलव्य ने जरासंध की सेना की तरफ से मथुरा पर आक्रमण कर यादव सेना का लगभग सफाया कर दिया था। यादव वंश में हाहाकर मचने के बाद जब कृष्ण ने दाहिने हाथ में महज चार अंगुलियों के सहारे धनुष बाण चलाते हुए एकलव्य को देखा तो उन्हें इस दृश्य पर विश्वास ही नहीं हुआ।
एकलव्य अकेले ही सैकड़ों यादव वंशी योद्धाओं को रोकने में सक्षम था। इसी युद्ध में कृष्ण ने धर्म की रक्षा के लिए छल से एकलव्य का वध किया था। उसका पुत्र केतुमान महाभारत युद्ध में भीम के हाथ से मारा गया था।
उल्लेखनी है कि निषाद नामक एक जाति आज भी भारत में निवास करती है। एकलव्य न तो भील थे और न ही आदिवासी वे निषाद जाति के थे।जिसे आजकल सबसे पिछड़ा वर्ग का माना जाता है।
धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर की दादी सत्यवती एक निषाद कन्या ही थी। सत्यवती के पुत्र विचित्रवीर्य की पत्नियों ने वेदव्यास के नियोग से दो पुत्रों को जन्म दिया और तीसरा पुत्र दासी का था। अम्बिका के पुत्र धृतराष्ट, अम्बालिका के पुत्र पांडु और दासीपुत्र विदुर थे।
प्रारंभ में एकलव्य का नाम अभिद्युम्न रखा गया था। प्राय: लोग उसे अभय नाम से ही बुलाते थे। पांच वर्ष की आयु में एकलव्य की शिक्षा की व्यवस्था कुलीय गुरुकुल में की गई। यह ऐसा गुरुकुल था जहां सभी जाति और समाज के उच्चवर्ग के लोग पढ़ते थे।
एकलव्य का जिस तरह चित्रण किया जाता है वह उस तरह के नहीं थे। वे एक राजपुत्र थे और उनके पिता की कौरवों के राज्य में प्रतिष्ठा थी। बालपन से ही अस्त्र-शस्त्र विद्या में बालक की लय, लगन और एकनिष्ठता को देखते हुए गुरु ने बालक का नाम ‘एकलव्य’ रख दिया था। एकलव्य के युवा होने पर उसका विवाह हिरण्यधनु ने अपने एक निषाद मित्र की कन्या सुणीता से करा दिया।
एक बार पुलक मुनि ने जब एकलव्य का आत्मविश्वास और धनुष बाण को सिखने की उसकी लगन को देखा तो उन्होंने उनके पिता निषादराज हिरण्यधनु से कहा कि उनका पुत्र बेहतरीन धनुर्धर बनने के काबिल है, इसे सही दीक्षा दिलवाने का प्रयास करना चाहिए। ब्राह्मण पुलक मुनि की बात से प्रभावित होकर राजा हिरण्यधनु, अपने पुत्र एकलव्य को द्रोण जैसे महान गुरु के पास ले जाते हैं।
एकलव्य गुरु द्रोणाचार्य के पास आकर बोला- ‘गुरुदेव, मुझे धनुर्विद्या सिखाने की कृपा करें!’ तब गुरु द्रोणाचार्य के समक्ष धर्मसंकट उत्पन्न हुआ क्योंकि उन्होंने भीष्म पितामह को वचन दे दिया था कि वे केवल कौरव कुल के राजकुमारों को ही शिक्षा देंगे और एकलव्य राजकुमार तो थे लेकिन कौरव कुल से नहीं थे। अतः उसे धनुर्विद्या कैसे सिखाऊं?
अतः
द्रोणाचार्य ने एकलव्य से कहा- ‘मैं विवश हूं तुझे धनुर्विद्या नहीं सिखा सकूंगा।
एकलव्य घर से निश्चय करके निकला था कि वह केवल गुरु द्रोणाचार्य को ही अपना गुरु बनाएगा। द्रोण की ओर से इंनकार करने के बाद हिरण्यधनु तो वापिस अपने राज्य लौट आए लेकिन एकलव्य को द्रोण के सेवक के तौर पर उन्हीं के पास छोड़ गए। द्रोण की ओर से दीक्षा देने की बात नकार देने के बावजूद एकलव्य ने हिम्मत नहीं हारी, वह सेवकों की भांति उनके साथ रहने लगा।
जब द्रोणाचार्य अपने शिष्यों को अस्त्र चलाना सिखाते थे तब एकलव्य भी वहीं छिपकर द्रोण की हर बात, हर सीख को सुनता था। अपने राजकुमार होने के बावजूद एकलव्य द्रोण के पास एक सेवक बनकर रह रहा था। एकलव्य ने अपने खाली समय में द्रोण की सीख के अनुसार अरण्य में रहते हुए ही एकांत में तीर चलाना सीखता था।
इस संवाद को इस तरह समझे…
इसके बाद जाते समय गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य को दांए हाथ की तर्जनी और मध्यमा दो अंगुलियों को दिखाते हुये संकेत दिया कि बाण दो अंगुलियों से भी चलाया जा सकता है। यदि युद्ध में अंगुठा कट गया तो क्या युद्ध स्थल छोड़ कर भाग जाओगे। परिणाम एकलव्य ने पुन: अभ्यास किया और पुन: पूर्ववत् दक्षता प्राप्त कर ली।
प्रश्न यही उठता है कि अन्ततोगत्वा अंगूठा कटवाने का उद्देश्य क्या रहा? तो इसके समाधान हेतु यह समझना होगा कि वह किसका पुत्र था? वह निषात् राज भिल्ल् का दत्तक पुत्र था। जोकि जरासंघ की सेना का सेनापति था। वह जरासंघ जो कि अत्यन्त अत्याचारी, क्रूर एवं श्रीकृष्ण का शत्रु था। उसने अपने बल से आसपास के कई राजाओं को बन्दी बना लिया था। ऐसे में उसकी क्षमता में वृद्धि होने का अर्थ है मानव जाति के लिए संकट को बढ़ाना। इसीलिए उसका अंगूठा कटवाया।