कई लोगों की आदत होती है दूसरों की बुराई करना या उनमें कोई कमी निकालकर उनका अपमान करना। ये दोनों ही काम हमें पतन की ओर ले जाते हैं। निंदा करना और अपमानित करना, इन दोनों कामों को ही हमारे शास्त्रों ने बहुत बड़ी बुराई माना है। इनको करने वाला इंसान अक्सर अपने मूल काम…
कई लोगों की आदत होती है दूसरों की बुराई करना या उनमें कोई कमी निकालकर उनका अपमान करना। ये दोनों ही काम हमें पतन की ओर ले जाते हैं। निंदा करना और अपमानित करना, इन दोनों कामों को ही हमारे शास्त्रों ने बहुत बड़ी बुराई माना है। इनको करने वाला इंसान अक्सर अपने मूल काम को भूल जाता है और बाकी लोगों से पीछे रह जाता है। अगर सफलता की राह में आगे बढ़ना हो तो दूसरों की बुराई और अपमान करने से हमेशा बचना चाहिए।
निंदा मतलब दूसरों के कामों में दोष ढूंढ़ना। दूसरों की बुराई करना आज–कल कई लोगों की आदत बन चुकी है। हर मनुष्य दूसरे में कोई न कोई दोष ढूंढ़ता ही रहता है। ऋग्वेद में कहा गया है कि दूसरों की निंदा करने से दूसरों का नहीं बल्कि खुद का ही नुकसान होता है। निंदा से ही मनुष्य की बर्बादी की शुरुआत होती है। ऐसे व्यक्ति अन्य लोगों के सामने किसी को बुरा साबित करने के लिए चोरी, हिंसा जैसे काम करने में भी नहीं कतराते। इस बात को ऋग्वेद में दी गई एक कथा से समझा जा सकता है।
ऋग्वेद में दी गई कथा और श्लोक
श्लोक-
निन्दावादरतो न स्यात् परेषां नैव तस्करः।
निन्दावादाद्धि गोहर्ता शक्रेणाभिहतो वलः।।
कथा-
बलासुर नाम का एक राक्षस था। वह हर समय देवताओं की निंदा करता और उनका अपमान करता था। एक बार देवताओं को अपमानित करने के लिए उसने देवलोक की सारी गायों का अपरहण करके उन्हें एक गुफा में छिपा दिया। जब भगवान इन्द्र को बलाकुर की इस हरकत के बारे में पता चला तो वे अपनी देवसेना लेकर गायों को छुड़वाने के लिए गए। उस गुफा में पहुंच कर भगवान इन्द्र ने सभी गायों को बलासुर की कैद से मुक्त किया और बलासुर का वध कर दिया। इसलिए मनुष्य को कभी भी दूसरों की निंदा का भाव अपने मन में नहीं आने देना चाहिए।
दूसरों की निंदा करने का स्वभाव बना था शिशुपाल की मृत्यु का कारण
शिशुपाल भगवान कृष्ण की बुआ का पुत्र था। शिशुपाल हमेशा से ही भगवान कृष्ण और पांडवों से जलता था। शिशुपाल भगवान कृष्ण और पांडवों की निंदा करता रहता था, लेकिन भगवान कृष्ण ने शिशुपाल की माता को उसके 100 अपराध माफ करने का वचन दिया था। इंद्रप्रस्थ के निर्माण के बाद युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ का आयोजन किया गया, जिसमें सभी राजाओं को बुलाया गया था। उस यज्ञ सभा में शिशुपाल ने भगवान कृष्ण, पांडवों सहित द्रौपदी की भी बहुत निंदा की। जब शिशुपाल ने अपनी हद पार कर दी तब भगवान कृष्ण ने भरी सभा में अपने सुदर्शन चक्र से उसका वध कर दिया।
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