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होली त्यौहार के बारे में वैज्ञानिक मान्यताये

होली त्यौहार के बारे में वैज्ञानिक मान्यताये
In व्रत त्योहार, होली
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हमें अपने पूर्वजों का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने वैज्ञानिक(Scientific)दृष्टि से बेहद उचित समय पर होली(Holly)का त्योहार मनाने की शुरूआत की थी लेकिन Holly-होली के त्योहार की मस्ती इतनी अधिक होती है कि लोग इसके वैज्ञानिक(Scientific)कारणों से अंजान रहते हैं-Scientific Beliefs About Holi Festival in Hindi :- होली(Holly)का त्योहार न केवल मौज-मस्ती-सामाजिक सदभाव और मेल-मिलाप…

हमें अपने पूर्वजों का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने वैज्ञानिक(Scientific)दृष्टि से बेहद उचित समय पर होली(Holly)का त्योहार मनाने की शुरूआत की थी लेकिन Holly-होली के त्योहार की मस्ती इतनी अधिक होती है कि लोग इसके वैज्ञानिक(Scientific)कारणों से अंजान रहते हैं-

Scientific Beliefs About Holi Festival in Hindi :-

होली(Holly)का त्योहार न केवल मौज-मस्ती-सामाजिक सदभाव और मेल-मिलाप का त्योहार है बल्कि इस त्योहार को मनाने के पीछे कई वैज्ञानिक(Scientific)कारण भी हैं जो न केवल पर्यावरण को बल्कि मानवीय सेहत के लिए भी गुणकारी हैं-

होली(Holly)का त्योहार साल में ऐसे समय पर आता है जब मौसम में बदलाव के कारण लोग उनींदे और आलसी से होते हैं और ठंडे मौसम के गर्म रूख अख्तियार करने के कारण शरीर का कुछ थकान और सुस्ती महसूस करना प्राकृतिक है-शरीर की इस सुस्ती को दूर भगाने के लिए ही लोग फाग के इस मौसम में न केवल जोर से गाते हैं बल्कि बोलते भी थोड़ा जोर से हैं इस मौसम में बजाया जाने वाला संगीत भी बेहद तेज होता है ये सभी बातें मानवीय शरीर को नई ऊर्जा प्रदान करती हैं इसके अतिरिक्त रंग और अबीर (शुद्ध रूप में) जब शरीर पर डाला जाता है तो इसका उस पर अनोखा प्रभाव होता है-

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होली(Holly)पर शरीर पर ढाक(पलाश) के फूलों से तैयार किया गया रंगीन पानी, विशुद्ध रूप में अबीर और गुलाल डालने से शरीर पर इसका सुकून देने वाला प्रभाव पड़ता है और यह शरीर को ताजगी प्रदान करता है जीव वैज्ञानिकों का मानना है कि गुलाल या अबीर शरीर की त्वचा को उत्तेजित करते हैं और पोरों में समा जाते हैं और शरीर के आयन मंडल को मजबूती प्रदान करने के साथ ही स्वास्थ्य को बेहतर करते हैं और उसकी सुदंरता में निखार लाते हैं-

Holly-होली का त्योहार मनाने का एक और वैज्ञानिक कारण है- हालाँकि यह होलिका दहन की परंपरा से जुड़ा है शरद ऋतु की समाप्ति और बसंत ऋतु के आगमन का यह काल पर्यावरण और शरीर में बैक्टीरिया की वृद्धि को बढ़ा देता है लेकिन जब होलिका जलाई जाती है तो उससे करीब 145 डिग्री फारेनहाइट तक तापमान बढ़ता है परंपरा के अनुसार जब लोग जलती होलिका की परिक्रमा करते हैं तो होलिका से निकलता ताप शरीर और आसपास के पर्यावरण में मौजूद बैक्टीरिया को नष्ट कर देता है और इस प्रकार यह शरीर तथा पर्यावरण को स्वच्छ करता है-

कुछ वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि रंगों से खेलने से स्वास्थ्य पर इनका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है क्योंकि रंग हमारे शरीर तथा मानसिक स्वास्थ्य पर कई तरीके से असर डालते हैं पश्चिमी फीजिशियन और डॉक्टरों का मानना है कि एक स्वस्थ शरीर के लिए रंगों का महत्वपूर्ण स्थान है हमारे शरीर में किसी रंग विशेष की कमी कई बीमारियों को जन्म देती है और जिनका इलाज केवल उस रंग विशेष की आपूर्ति करके ही किया जा सकता है- होली के मौके पर लोग अपने घरों की भी साफ-सफाई करते हैं जिससे धूल गर्द, मच्छरों और अन्य कीटाणुओं का सफाया हो जाता है एक साफ-सुथरा घर आमतौर पर उसमें रहने वालों को सुखद अहसास देने के साथ ही सकारात्मक ऊर्जा भी प्रवाहित करता है-

होलिका दहन व पूजन आदि निम्न प्रकार से करना चाहिए-

होलाष्टक के पहले दिन किसी पेड़ की शाखा को काटकर उस पर रंग-बिरंगे कपड़े के टुकड़े बांधे जाते हैं- मोहल्ले, गांव या नगर के प्रत्येक व्यक्ति को उस शाखा पर एक वस्त्र का टुकड़ा बांधना होता है पेड़ की शाखा जब वस्त्र के टुकड़ों से पूरी तरह ढंक जाती है तब इसे किसी सार्वजनिक स्थान पर गाड़ दिया जाता है शाखा को इस तरह गाड़ा जाता है कि वह आधे से ज्यादा जमीन के ऊपर रहे- फिर इस शाखा के चारों ओर सभी समुदाय के व्यक्ति गोल घेरा बनाकर नाचते-गाते हुए घूमते हैं इस दौरान अर्थात घूमते-घूमते एक-दूसरे पर रंग-गुलाल, अबीर आदि डालकर प्रेम और मित्रता का वातावरण उत्पन्न किया जाता है होलाष्टक के आखिरी दिन यानी फागुन पूर्णिमा को मुख्य त्योहार होली मनाया जाता है-

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मुख्य त्योहार यानी फागुन पूर्णिमा को अर्धरात्रि के बाद घास-फूस, लकड़ियों, कंडों तथा गोबर की बनाई हुई विशेष आकृतियों (गूलेरी या बड़गुले) को सुखाकर एक स्थान पर ढेर लगाया जाता है इसी ढेर को होलिका कहा जाता है इसके बाद मुहूर्त के अनुसार होलिका का पूजन किया जाता है-

अलग- अलग क्षेत्र व समाज की अलग-अलग पूजन विधियां होती हैं अतः होलिका का पूजन अपनी पारंपरिक पूजा पद्धति के आधार पर ही करना चाहिए- आठ पूरियों से बनी अठावरी व होली के लिए बने मिष्ठान आदि से भी पूजा होती है-

होलिका पूजन के समय निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहिए –

“अहकूटा भयत्रस्तैः कृता त्वं होलि बालिशैः ।
अतस्वां पूजयिष्यामि भूति-भूति प्रदायिनीम्‌ ॥”

घरों में गोबर की बनी गूलरी की मालाओं से निर्मित होली का पूजन भी इसी प्रकार होता है कुछ स्थानों पर होली को दीवार पर चित्रित कर या होली का पाना चिपकाकर पूजा की जाती है यह लोक परंपरा के अंतर्गत आता है-

पूजन के पश्चात होलिका का दहन किया जाता है यह दहन सदैव उस समय करना चाहिए जब भद्रा लग्न न हो ऐसी मान्यता है कि भद्रा लग्न में होलिका दहन करने से अशुभ परिणाम आते हैं, देश में विद्रोह, अराजकता आदि का माहौल पैदा होता है इसी प्रकार चतुर्दशी, प्रतिपदा अथवा दिन में भी होलिका दहन करने का विधान नहीं है-

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दहन के दौरान गेहूँ की बाल को इसमें सेंकना चाहिए- ऐसा माना जाता है कि होलिका दहन के समय बाली सेंककर घर में फैलाने से धन-धान्य में वृद्धि होती है दूसरी ओर यह त्योहार नई फसल के उल्लास में भी मनाया जाता है-

होलिका दहन के पश्चात उसकी जो राख निकलती है जिसे होली-भस्म कहा जाता है उसे शरीर पर लगाना चाहिए-

भस्म लगाते समय निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहिए –

वंदितासि सुरेन्द्रेण ब्रम्हणा शंकरेण च ।
अतस्त्वं पाहि माँ देवी! भूति भूतिप्रदा भव ॥

ऐसी मान्यता है कि जली हुई होली की गर्म राख घर में समृद्धि लाती है साथ ही ऐसा करने से घर में शांति और प्रेम का वातावरण निर्मित होता है-

नवविवाहिता क्यों नहीं देखती होली-

नववधू को होलिका दहन की जगह से दूर रहना चाहिए विवाह के पश्चात नववधू को होली के पहले त्योहार पर सास के साथ रहना अपशकुन माना जाता है और इसके पीछे मान्यता यह है कि होलिका (दहन) मृत संवत्सर की प्रतीक है- अतः नवविवाहिता को मृत को जलते हुए देखना अशुभ है.

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2012-02-28T13:20:08+05:30
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